कुछ यादें, कुछ बातें
छोड़ जाते हैं निशाँ
लम्बे वक़्त का मरहम
मगर चुभन जाती नहीं
भूलना चाहे, तो भूल जाते
मगर वो एहसास जाता नहीं
बीते पल फिर लौट आये
साए जैसे जाग जाए
इन्हें फिर दफना दूं
तो शायद सुकून मिले
घाव खुरेदें, लघु फूंट निकले
चोंट और दर्द ताज़ा हो गए
इन्हें फिर सह जाऊं
तो शायद सुकून मिले
वक़्त की नुकीली लहरें फिर टकराई
टूट गया बाँध
इन्हें फिर से बनाऊ
तो शायद सुकून मिले
कोशिश ही सहारा
बार-बार गिरना
और बार-बार उठना, दौड़ना
इस रफ़्तार की होड़ में, भीड़ की आड़ लिए
खुद से भागना – एक बेगाना, अनजाना
अब –
उन सायो से डर नहीं लगता
उन घावों की चुभन नहीं होती
वो बाँध भी नहीं टूटती
इन कोशिशों से, अब, थकान नहीं होती
तो, अब, शायद सुकून मिले?
b