कच्चे

5 11 2011

कच्ची धूप का सिरहाना लिए
उस मोड़ की पतली डगर
पिपली पेड़ का कोना लिए
दूर कहीं गोता लगाये

आओं चले हम
कहीं ऐसी नगर को
जहाँ अपनी ही दुनिया हो
अपनों में ही दुनिया हो

मीठी-मीठी सी खुशबू
घुली मिटटी का ओछा लिए
चुटकी भर सीत हवा, गुदगुदाए

वादियों से सिला रुस्तम कोहरा
धीमी-धीमी, धुंधली-धुंधली
ठहरा हुआ, सिमटा-सिमटा ये समा

रुके क्यों, क्यों थमे
थामे हाथों में हाथ, उगे

एक-एक कदम बुने उस कच्ची सड़क पर
सुरली डंडी पर तोड़ते दम
आए, हम आए लिप-लिपि सी बादलों को चीरकर

चांदी के चाँद को पीए
चांदनी के लेप से नहाए
कस-कसकर चूमे नरम रेशमी हवाएं
भर-भरकर सिसकती सिसकियाँ

सुनहरी धूप का कुल्हा किए
ज़िन्दगी जिंदादिली की गुन-गुन
महक कच्चे आम का
किर-किरहाये रूठे भुरे पत्ते

चले हम, फिर से, नज़र में धूल जिगर में गुब्बार लिए


क्रिया

Information

3 responses

6 11 2011
snowyys

अच्छी कविता है

21 12 2018
Meena sharma

वाह ! बहुत खूबसूरत रचना।

22 12 2018
onkar kedia

बहुत बढ़िया

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