झींगा खेला

3 03 2009

बांगला चलचित्र (फिल्म) “खेला” २००८ में निकली एक बंगाली फिल्म है जिसे रितुपर्णो घोष ने निर्देशित किया है | मैंने यह फिल्म youtube पर देर रात को देखी थी | कुछ बंगाली फिल्म निर्देशक मेरे प्रिय है – सत्यजित राय , अपर्णा सेन, रितुपर्णो घोष, बप्पदित्य बंदोपाध्याय, मृणाल सेन | इनके चलचित्र अंतरराष्ट्रीय स्तर के होते हैं | ये , इंडिया की पृष्ठ भूमि पर आधरित, लोगों की भावना, सोच, रिवाज, चाहत, अहम् और स्थिति को अपने फिल्मो में दर्शाते है | ज़ाहिर है इनकी फिल्मों में मानवीयकरण ही होता है | एक इंसान या परिवार, या प्रान्त को लेकर उनपर अपनी कटाक्ष टिपण्णी देते हैं | सत्यजित अपने प्रमुख पात्र का मनोविज्ञान को प्रस्तुत करते थे या स्थिति की दशा, चाहे सुदशा हो या दुर्दशा, को दर्शाते थे | ये सभी नोर्देशक neo-realist या poetic-realist है | अर्थात सच को कठोरता से नहीं दिखलाते | मगर मिठास्ता भी नहीं डालते | देखने पर चलचित्र – बनावटी ही लगता है पर सचाई की अनुभूति होती है | पात्र सुख-दुःख दोनों से गुज़रते है| यूँ लगता है की हम दूर बैठे देख रहे है | इनकी कहानी में वार्ता और फिल्म स्थापन मज़बूत होता है जिससे दर्शक उसी माहौल और भाव में लीन हो जाता है |

खेला में ये सभी तत्व प्रस्तुत है | फिल्म की कहानी में नहीं बोलूँगा बल्कि फिल्म निर्देशन बारे में कहूँगा | फिल्म का स्थापन पश्चिम बंगाल के दुआर – दार्जिलिंग, कुर्सेओंग – में है जहां फिल्म निर्देशक राजा (प्रोसेंजित चटैर्जी) अपनी पहली फिल्म की शूटिंग करते हैं | दुआर के हरे -हरे जंगलों में शूटिंग होती है | पथरीला रास्ते, बारिश और लोगों का स्वेटर पहनना होना – यह सब दर्शक को दुआर तक पहुंचा देते हैं | चलचित्रकी (cinematography) सामान्य है | फिल्म कलकत्ता (भूतकाल) और दुआर (वर्तमान) के बीच डोलती है | हर फिल्म की तरह इस फिल्म में भी रबिन्द्रसंगीत का एक गाना है जो मनीषा कोइराला गाती है | हर फिल्म की तरह, रितुपर्णो एक वस्तु को चुनते हैं, जो पूरी फिल्म तक रहता है और फिल्म का प्रतीक बन जाता है | इस फिल्म में एक काच के शीशी में बंद कीडा (caterpillar) है जिसे बंगाली में “झींगा” भी कहते है | झींगे का तितली में परिवर्तित होना मगर शीशी में ही बंद रहना – उड़ान को कोशिश करते रहना – इस फिल्म का प्रतीक है जो अंत में नज़र आता है |

अभिनय :

मुझे प्रोसेंजित का अभिनय मनीषा से बेहतर लगा | प्रोस्नेजित की कलात्मकता उसकी उम्र की तरह बढती जा रही है | राजा के पात्र को उसके मेक-उप और हेयर-स्टाइल से सहा

झींगा खेला

झींगा खेला

यता मिली | कुछ एक जगह मनीषा का अभिनय बनावटी लग रहा था | रायमा सेन ने अच्चा भीने किया | एक सीन में उनका रोना बनावटी लग रहा था | प्रोसेंजित ने एक ठूठ, निराश और आततायी की भूमिका को अपने आखों और चुप्पी से प्रर्दशित किया | कहीं भी अतिशय नहीं किया | किरदार को सहज रूप से निभाया | बाल-पात्र – अभिरूप ने अपने किरदार को सरलता और कुशलता से निभाया |

कहानी :

कहानी  बहुत ही सरल है | मगर इसके निर्देशन ने नहानी को मजबूती दी | भूत और वर्त्तमान के बीच कहानी का डुलना – कहानी में कसाव लाता है जिससे कहानी को मजबूती मिलती है | प्रतीक का इस्तमाल करने से कहानी को साकार रूप मिलता है | इसकी कहानी में शूटिंग को दिख्लारकर इसे रोमांचक बनाया है | साथ में राजा और अभिरूप के बीच हुए समझौते की अनिश्चितता भी जिज्ञासा और रोमांच जगाती है |

यह फिल्म में दुपहर के वक्त अकेले या अपने साझेदार के साथ देखने की अनुशंसा करूँगा |

कुल मैं ४/५ दूंगा | साथ ही इसे देखने का आग्रह भी करूँगा |

धन्यवाद